रविवार, 27 सितंबर 2009

प्रगति मैदान में दिल्ली पुस्तक मेले का आयोजन

३१ अगस्त, २००९, प्रगति मैदान का प्रगति ऑडिटोरियम में दिल्ली पुस्तक मेले के अवसर पर नेशनल बुक ट्रस्ट इण्डिया ने 'बच्चों के लिए पुस्तकों का लेखन ,चित्रांकन ,विपणन : वर्त्तमान चुनौतियाँ' शीर्षक से एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया। गोष्ठी की अध्यक्षता देवेन्द्र मेवाड़ी ने की। विचार गोष्ठी में अलका पाठक, मधु पन्त, और दिनेश मिश्र ने अपने विचार प्रकट किए। साथ ही 'सौर मण्डल की सैर' ( लेखक-देवेन्द्र मेवाड़ी, चित्रांकन-अरूप गुप्ता), हमारे जल-पक्षी (राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह), अंजाम (मौलवी कमर अब्बास, चित्रांकन: हाज़ी बिन सुहेल) पुस्तकों का लोकार्पण किया गया। पुस्तक लोकार्पण विभिन्न विद्यालयों के बच्चों ने किया।

नेशनल बुक ट्रस्ट इण्डिया के सम्पादक श्री मानस रंजन महापात्र कई महीने से विचार गोष्ठी के माध्यम से वैचारिक जाग्रति का अभ्यान चलाए हुए हैं। आपने विषय का प्रवर्तन करते हुए कहा कि बच्चों के लिए कुछ करें। वक्ताओं का आह्वान करने से पूर्व आज की विचार गोष्ठी के संचालक श्री पंकज चतुर्वेदी ने कहा, 'बच्चों का वर्ग बहुत बड़ा है, जो किताबों का पाठक है। लेखक, चित्रकार, प्रकाशक सब इसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं। बचपन को याद करना बहुत सुखद होता है। सुकून देने के लिए बच्चों की एक अहम भूमिका होती है। आज जो नीतियाँ समय के साथ नहीं चल पा रही हैं, उन्हें बदलना पड़ रहा है। श्रीमती अलका पाठक ने अपने बचपन को याद करते हुए कहा कि हमने माता-पिता से किताबें ख़रीदने की ज़िद की।

लेखक के दायित्वबोध पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि बाल साहित्य-लेखन अपने बीते हुए कल का आने हुए कल संवाद करना है। हमारे बचपन में न दैत्य थे न राजा-रानी। आज रंगरूप बदलकर वह सच, बड़ों के अधूरे सपने का बोझ बन कर आ गया है। अब वह पढ़ लेना है, जो पढ़ा नहीं गया। 'एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा। चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।' का आसमान शहर में कहाँ है? बाल साहित्य में जानवर पात्र हैं, पर मानव की तरह चालाक हैं। बच्चों की दुनिया में चाचा चौधरी भी आ टपकते हैं। 'नदी की धारा में नानू की नाव' चल पड़ती है। बच्चों के पास समय की कमी है लेकिन सपनों की कमी नहीं है। बालगीत, खेलगीत कहीं पीछे रह गए हैं। बच्चों को पढ़ने के लिए दिया गया है, उसमें कहा क्या गया है; यह महत्त्वपूर्ण है। कोई भी बाल-पत्रिका बच्चों के माँ-बाप की तरह है। अन्य पत्रिकाओं में बाल साहित्य की चर्चा होती ही नहीं। 'बरसो राम धड़ाके से, बुढ़िया मर गई फ़ाके से' या 'अल्लाह मेघ दे' जैसे जनगीत कहाँ हैं।

डॉ मधु पन्त ने कहा, 'मेरी नज़र में वह आम बच्चा रहा है जो पुस्तक पढ़ने से वंचित रह जाता है। आज का दुखद सच यह है कि बच्चे का बचपन छीनकर, उसके सपनों को तोड़कर, उसे बोंज़ाई बनाकर छोड़ देते हैं। उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास की बात कहीं दूर खो जाती है। अभिभावक या शिक्षक, आज सबके लिए चुनौतियाँ हैं। लेखक बनने के लिए बच्चों के मन में सेंध लगानी होगी, तभी वह बच्चों के लिए लिख सकेगा। लेखक को बच्चा बनना पड़ेगा जो बहुत कठिन है; क्योंकि हमने बच्चे को असमय बूढ़ा बना दिया है। चित्रकार को शब्दों का पूरक होना चाहिए। अच्छा चित्रकार वह है जो अपनी संकल्पना से बच्चों को किताबों की दुनिया की सैर करा दे। किताब इतनी आकर्षक हो कि बच्चे का हाथ खुद-बखुद किताब की तरफ़ बढ़े। चित्रों की चमक, अक्षरों का आकार, उपयुक्त दाम बच्चों को किताब ख़रीदने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। तालों मे बन्द किताबें कितनी बेचैन हैं, इसको महसूस करें। बच्चों की पहुँच किताबों तक बेरोकटोक होने दें।'

श्री दिनेश मिश्र ने कहा, 'बच्चों का साहित्य केवल मनोरंजन के लिए नहीं, वरन पूरे समाज और सृष्टि के निर्माण की शुरुआत है। समाज, परिवार देश में बच्चों की स्थिति क्या है, यही पैमाना है। देश के बजट में शिक्षा के लिए कितना बज़ट है और उसमें बच्चों के लिए कितना खर्च किया जाता है? आपका चरित्र इससे भी तय होता है कि आप उसे खर्च कैसे करते हैं? जो समाज बच्चों की अनदेखी करता है, वह अपने भविष्य को नष्ट कर रहा है। हमारे समाज में इस आत्मघाती प्रवृत्ति के सभी लक्षण मौज़ूद हैं। बाल-साहित्य लेखन के लिए समर्पण ज़रूरी है। बाल-साहित्य लेखन आपके लेखन के केन्द्र में है या 'बाल-साहित्य भी लिखते हैं' में अन्तर है। 'यह है तो मैं हूँ, यह नहीं है तो मैं नहीं हूँ।' की सोच ज़रूरी है। बाल साहित्य देश की आवश्यकता है; मेहरबानी नहीं है। बाल साहित्य में उपदेश नहीं होना चाहिए; लेकिन केवल मनोरंजन ही हो, उचित नहीं है। दिमाग के लिए भी खुराक होनी चाहिए। सही-गलत का विवेक भी होना चाहिए। यदि ऐसा हो गया तो समझो आधी लड़ाई जीत ली। फ़ायदे की सुनामी से बचकर नेशनल नेटवर्क बनाया जाना चाहिए। सरकार यह कर सकती है, क्योंकि सरकार बेबस भले ही नज़र आए, परन्तु होती नहीं। मॉल बने तो वहाँ किताबों की दूकान भी हो। जब उपहार देने का मौका हो, किताबें दी जाएँ। बाल साहित्य मानवता का भविष्य है।

अध्यक्षीय भाषण में श्री देवेन्द्र मेवाड़ी ने कहा, 'हमने चिड़ियाँ, कलियाँ, बादल, नदियाँ झरने, हवाएँ, देखे हैं। चीड़ के बीज गिरते देखे हैं। लेखकीय दायित्व पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि बच्चे से पूरी आत्मीयता महसूस करके लेखक को एक प्रकार से परकाया -प्रवेश करना पड़ता है। लेखक अपने में बच्चे को जीवित करेगा, तभी वह सार्थक सर्जन कर पाएगा। इस लेखन में चित्रकार भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। वह लेखक की कल्पना के बिम्बों को आकार ही नही देता वरन चित्र के रूप में अनुवाद करता है। माँ-बाप अपनी दमित इच्छाएँ बच्चे पर न लादें। बच्चे में सहजभाव से बढ़ने की अपार सम्भावनाएँ होती हैं। हमारी भाषाओं में हैरी पॉटर से भी अधिक उत्कृष्ट साहित्य है, उसे सामने लाया जाए।


दूसरे सत्र में पुस्तक-लोकार्पण का अभिनव प्रयोग किया गया। सभी पुस्तकों का लोकार्पण विभिन्न विद्यालयों के विद्यार्थियों द्वारा कराया गया। अन्तर्राष्ट्रीय खगोल वर्ष २००९ के अवसर पर 'सौर मण्डल की सैर' के लेखक और चित्रकार तथा 'अंजाम' के चित्रकार भी इस वसर पर मौजूद थे। इस कार्यक्रम की सबसे बड़ी उपलब्धि थी इन पुस्तकों पर पढ़ी गई समीक्षा। 'अंजाम' (उर्दू पुस्तक) पर अमीना ने 'सौर मण्डल की सैर' पर -खुशबू, अनीता सपना चौधरी, पूर्णिमा यादव राक्या परवीन ने; 'हमारे जल-पक्षी' पर सेवानिवृत्त शिक्षिका श्रीमती विमला सचदेव की प्रेरणा से कमल, हसीना, नाज़,राधा, रेणु ने समीक्षाएँ प्रस्तुत की। श्री मानस रंजन महापात्र जी ने सबके प्रति आभार व्यक्त किया। इस प्रकार के सार्थक कार्यक्रम की प्रस्तुति के लिए 'नेशनल बुक ट्रस्ट' और इसकी कर्मठ टीम बधाई की पात्र है।

-प्रस्तुति- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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