चित्र- प्रो.दिलीप सिंह की पुस्तक 'अनुवाद की व्यापक संकल्पना ' के लोकार्पण के अवसर पर बाएँ से, डॉ. राधेश्याम शुक्ल, डॉ. सच्चिदानंद चतुर्वेदी, डॉ. दिलीप सिंह, डॉ. त्रिभुवन राय, डॉ. जगदीश प्रसाद डिमरी और डॉ. विष्णु भगवान शर्मा।
हैदराबाद| यहाँ उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा 30 अप्रैल 2011 को आयोजित एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के अवसर पर प्रमुख हिंदी भाषा चिंतक प्रो. दिलीप सिंह की वाणी प्रकाशन द्वारा सद्यःप्रकाशित पुस्तक ''अनुवाद की व्यापक संकल्पना'' को हिंदी दैनिक 'स्वतंत्र वार्त्ता' के संपादक डॉ. राधे श्याम शुक्ल ने लोकार्पित किया।
लोकार्पित कृति का परिचय देते हुए प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने बताया कि लेखक ने भूमंडलीकृत दुनिया में अनुवाद की नई भूमिका पर समसामयिक सन्दर्भों में सार्थक चर्चा की है और साथ ही अनुवाद समीक्षा के नए प्रारूप खास तौर से भारतीय भाषाओँ के परिप्रेक्ष्य में सुझाए हैं। उन्होंने किताब को अनुवाद शास्त्र के अध्येताओं, विद्वानों और अनुवादकों के लिए समान रूप से उपयोगी माना।
लोकार्पण करते हुए डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने भारतीय बहुभाषिक स्थिति में अनुवाद के महत्त्व और स्वरुप की चर्चा करते हुए अनुवाद को विश्वविद्यालयीय स्तर पर भाषाविज्ञान के साथ साथ साहित्य विभागों का भी अनिवार्य हिस्सा बनाने की माँग की और कहा कि भारतीय साहित्य की सभी क्लासिक रचनाओं का अनुवाद परस्पर सभी भारतीय भाषाओँ में उपलब्ध कराने के लिए हिंदी का मध्यस्थ भाषा के रूप में व्यवहार किया जाना चाहिए। अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के रूसी विभाग के आचार्य प्रो. जे.पी. डिमरी ने लेखक डॉ. दिलीप सिंह को बधाई देते हुए कहा कि हिंदी में अनुवाद चिंतन और समाजभाषाविज्ञान के क्षेत्र में उनकी सेवाएँ अभिनंदनीय हैं।
प्रो. दिलीप सिंह ने अपने संबोधन में बताया कि उन्हें अनुवाद विषयक अध्ययन-अध्यापन तथा चिंतन-मनन के दौरान जिन विषयों ने उद्वेलित किया, यह पुस्तक उन सबका समाधान खोजने का विनम्र प्रयास तो है ही, देश-विदेश के तमाम अनुवाद चिंतन को सार रूप में प्रस्तुत करने के अभियान का हिस्सा भी है। उन्होंने लोकार्पणकर्ता और वक्ताओं के प्रति आभार प्रदर्शित किया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें