रविवार, 28 नवंबर 2010

रामजी यादव द्वारा सपादित तीन संचयनों का लोक परिचय


२० नवम्बर को काफी हाउस, मोहन सिंह प्लेस में रामजी यादव द्वारा सपादित तीन संचयनों का लोक परिचय हुआ और एक अनौपचारीक बातचीत फुले संचयन, भारतेंदु संचयन और रामचंद्र शुक्ल संचयन के रूप में इन तीनों रचनाकारों कि प्रतिनिधि रचनाओं के माध्यम से उनके कृतित्व, सामाजिक -सांस्कृतिक अवदानों और समकालीनता को परखने कि कोशिश कि गयी है।

आनंद प्रकाश कि अध्यक्षता में संपन्न हुयी इस गोष्ठी में पकज बिष्ट और प्रेमपाल शर्मा ने इनका लोक परिचय कराया। इसके बाद सम्पादकीय प्रक्रिया पर रामजी यादव को अपनी बात रखने का मौका दिया गया। रामजी ने कहा कि संचयन का मुख्य उद्देश्य इन रचनाकारों को अपने समय के आलोक में अपनी परम्पराओं को जाँचने कि कोशिश है कि हमारे पूर्ववर्ती और महान रचनाकारों ने हमारे समाज के साथ अपना क्या रिश्ता बनाया और उस समाज का क्या दायरा था। इन संचयनों के न होने से इन पर उपलब्ध सामग्री में बेशक कोई फर्क नहीं पड़ा है लेकिन उन सामग्रियों को देखने का नजरिया ज़रूर अलग है। तीनों क्रमश भारतीय इतिहास में एक बड़ी लकीर का निर्माण करते हैं लेकिन इनका बुनियादी फर्क बहुत ज्यादा है, ज्योतिबा फुले इनमे सबसे वरिष्ठ है और इनमे सबसे ज्यादा समकालीन भी, जबकि मुख्यधारा खास तौर से हिंदी मुख्यधारा में उनपर गंभीरता से विचार नहीं हुआ है। वे हाशिये के समाजों के रचनाकार हैं और इसी समाज ने उनकी खोजखबर ली और अपने संघर्षों का महापुरुष बनाया। फुले का नाता भारत के वृहत्तर और संघर्षशील समाजों से है इसीलिए वे मुझे हमेशा आकर्षित करते रहे हैं। भारतेंदु संभवतः अपने द्वाद्वों कि वजह से हमेशा आसपास के रचनाकार लगते रहे लेकिन उनके अंतर्विरोध इतने गहरे हैं कि उनका मिथक नकली लगता है। वस्तुतः वे वैष्णव हिन्दू थे जो भारत कि सामासिक संस्कृति के मेयार से उच्चतम मान नहीं प्रस्तुत करते बल्कि उनकी सीमाओं को अधिक गहराई से तब देखा जा सकता है जब तत्कालीन भारत के लोकजीवन के ग्रामीण और कस्बाई हिस्से को देखा जाय। इसके बावजूद उनमे मौलिक रूप से सामंतवाद के खिलाफ औपनिवेशिक पूँजीवाद के प्रति स्पष्ट रुझान है जो उन्हें एक महत्वपूर्ण रचनाकार बनाता है। उनकी इस विशेषता ने उन्हें फिर से पढ़ने कि प्रेरणा दी। जबकि रामचंद्र शुक्ल बीसवीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर का होने के बावजूद ब्राह्मणवाद और चातुर्वर्ण्य जैसे पतन शील मूल्यों के पोषक रचना कर हैं। वे महाकाव्यात्मक आस्था के कायल हैं और इस प्रक्रिया में उन सभी रचनाकारों को लगभग ख़ारिज करते हैं जिनमे कथानक नहीं हैं बल्कि जीवन के अनुभवों और बोध का सहज बयान है। हालाँकि शुक्ल जी ने हिंदी आलोचना का व्यवस्थित पैटर्न सेट किया लेकिन उनके समाज का दायरा अत्यंत सीमित है और कुल मिलकर वे जिनका लोक मंगल चाहते हैं वे भारत के सवर्ण हैं जो आज़ाद भारत कि सारी संस्थाओं में कुंडली मार कर बैठे हैं।

पंकज बिष्ट ने कहा कि किताबें अभी अभी मिली हैं इसलिए पढना तो संभव नहीं है लेकिन मैं समझता हूँ कि अपनी साहित्यिक परम्परों को जानने के लिए ऐसे प्रयास बहुत जरूरी हैं। हिंदी में गंभीर आलोचना कि प्रक्रिया ख़त्म होती जा रही है जिसमे अपने समाज को साहित्य और साहित्यकारों को देखने कि सम्पूर्ण दृष्टि हो। इससे हो यह रहा है कि साहित्य अपनी भूमिका से लगातार कट रहा है। रामचंद्र शुक्ल आदि आलोचकों को नए सिरे से देखने कि ज़रुरत है। हालाँकि उनके समय से उन्हें काटकर देखना उनके साथ अन्याय होगा परन्तु इसका मतलब यह भी नहीं कि नहीं कि उनकी सीमाओं को नज़रंदाज़ कर के उनकी मूर्तिपूजा कि जाय। आज वस्तुनिष्ठ आलोचना का एक मजबूत पैटर्न बनाना बहुत ज़रूरी है। ज़ाहिर है कि बिना इसके न साहित्य की परम्परा को जाना जा सकता है और न ही आज को।

कहानीकार प्रेमपाल शर्मा ने अपनी बात रखते हुए आलोचना कि इमानदार और तटस्थ परंपरा की खोज को एक ज़रुरत बताया। आनंद प्रकाश ने कहा कि शुक्ल जी ऐसे आलोचक हैं जो दूसरों को अपनी बात कहने का मौका देते हैं। वे लोक मंगल के रचनाकार हैं और तुलसी के रूप में उन्होंने एक ऐसे लोक कवि को चुनते हैं जो एक बोली में महाकाव्य लिख रहा था और वह साधारण शब्दों और भाषा का रचनाकार है, जिसने सीता जैसी स्त्री को आधुनिक सन्दर्भ में चित्रित किया। रामचंद्र शुक्ल ने सबसे बड़ा कम इतिहास लिखने का किया। वे आलोचना को एक महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित करने वाले आलोचक हैं। रामजी यादव ने इन तीनों रचनाकारों को सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य में देखने परखने का काम किया है। यह एक आलोचक कि दृष्टि से किया गया काम है जो विश्वविद्यालयों के दयारे में संभव नहीं है। यहाँ किसी भी ढंग से अपनी बात को साबित करने का कौशल नहीं बल्कि अपने समाज कि कसौटी पर परम्परा को देखने का प्रयास है। आनंद जी ने शुक्ल जी के सन्दर्भ में कहा कि कि वे इ अ रिचर्ड से प्रभावित रहे हैं और रचना को सामाजिक सन्दर्भों से कट कर देखते थे। उनपर नए सिरे से बात होनी चाहिए। भारतेंदु मिश्र ने कहा कि आज समाज बहुत आगे बढ़ चुका है और उसकी चुनौतियाँ गंभीर होती जा रही हैं। साहित्य कि भूमिका को प्रभावशाली बनाने के लिए बड़ी निर्ममता और इमानदारी से अपने पूर्व वर्ती लेखकों और आलोचकों पर बात होनी चाहिए। गोष्ठी का सञ्चालन करते हुए वेद प्रकाश ने कहा कि शुक्ल जी 'विश्व प्रपंच' और 'बुद्ध चरित' जैसी पुस्तकों को पहली बार हिंदी में ले आये। वे विज्ञान के प्रति सकारात्मक रुख रखते थे। उनके इस पक्ष को भी पुस्तक में रखा जाना चाहिए था। गोष्ठी में अनेक रचनाकार उपस्थित थे जिनमे अजय सिंह, सुल्तान सिंह त्यागी, शुक्राचार्य, उपेन्द्र कुमार, कुमार मुकुल, अच्युता नन्द मिश्र, रूबल मित्तल, जय कृष्ण, क्षितिज शर्मा, अशोक मिश्र, आलोक शर्मा, रणजीत वर्मा, कमलेश, अंजू, पूजा और दीपक आदि हैं।

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