रविवार, 30 अगस्त 2009
लन्दन के नेहरू केन्द्र में बी.आर. चोपड़ा का अभिनंदन
एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स एवं कथा यू.के. द्वारा लन्दन के नेहरू केन्द्र में आयोजित एक रंगारंग कार्यक्रम में हिन्दी सिनेमा की मुख्यधारा के महत्वपूर्ण निर्माता निर्देशक बी.आर.चोपड़ा की उपलब्धियों का लेखा जोखा श्रोताओं के सामने रखा गया। कथा यू.के. के महासचिव तेजेन्द्र शर्मा ने इस अवसर पर बोलते हुए कहा कि बी.आर. चोपड़ा अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक थे। उन्होंने हमेशा सामाजिक सच्चाइयों से जुड़ी फ़िल्मों का निर्माण किया; आम आदमी की समस्याओं को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया मगर मनोरंजन का दामन नहीं छोड़ा। उनकी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि उन्हें विषयों की तलाश में मदद करती थी। नया दौर (१९५७) संभवतः उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कही जा सकती है। मनुष्य बनाम मशीन जैसे ज्वलंत विषय को बी.आर.चोपड़ा ने बहुत संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया है साथ ही ओ.पी.नैय्यर के पंजाबी लोक धुनों पर आधारित सुरीले संगीत ने विषय को सार्थक सहयोग दिया है।''
नेहरू केन्द्र की निदेशिका मोनिका मोहता ने कार्यक्रम की शुरुआत में श्रोताओं का स्वागत करते हुए एशिय कम्यूनिटी आर्ट्स की अध्यक्षा काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी एवं तेजेन्द्र शर्मा को कार्यक्रम के लिए धन्यवाद दिया। तेजेन्द्र शर्मा, जो नेहरू सेंटर से लंबे अरसे से जुड़े हैं, ने बी.आर. चोपड़ा द्वारा निर्मित फ़िल्म वक़्त (१९६५) के कुछ दृश्य दिखाए और अनेक फ़िल्मों के पीछे की कहानियाँ दर्शकों को सुनाईं। कार्यक्रम में एक नया रंग भरने के लिए युवा गायक (रॉयल कॉलेज और म्यूज़िक) जटानील बैनर्जी ने फ़िल्म गुमराह की साहिर लिखत नज़म गा कर सुनाई – 'चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों।' गिटार पर उनका साथ दिया निखिल ने।त्रिनिदाद की बहनों कृष्णा एवं कैमिलिता ने 'रेश्मी शलवार कुर्ता जाली का...' पर मज़ेदार नृत्य प्रस्तुत कर दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया।शायद बी.आर चोपड़ा की सोच के अनुसार कार्यक्रम में मनोरंजन का पुट डाला गया था। कार्यक्रम की समाप्ति में महाभारत का वह अंश दिखाया गया जिस में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं, ''यदा यदा ही धर्मस्य ग्लनिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य स्वात्मानं सृजाम्यहम, परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम, धर्मसंस्थापनार्थाय, संभवामि युगे युगे।'' उपस्थित दर्शक समूह एकमत से कह उठे कि इस कार्यक्रम से इस से बढ़िया समाप्ति हो ही नहीं सकती थी।
- दीप्ति कुमार
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