रविवार, 27 फ़रवरी 2011

श्री समीर लाल के उपन्यास देख लूँ तो चलूँ का विमोचन


इंटरनेट तथा ब्लाबग जगत के चर्चित नाम श्री समीर लाल समीर की लघु उपन्यासिका ’देख लूँ तो चलूँ’ का विमोचन गत १८ जनवरी को जबलपुर में देश के शीर्ष कहानीकार श्री ज्ञानरंजन ने किया इस अवसर पर वरिष्ठव साहित्येकार श्री हरिशंकर दुबे भी उपस्थित थे । ब्लाइग जगत में उड़नतश्तरी के नाम से अपना बहुचर्चित ब्लाभग चलाने वाले श्री समीर लाल की ये पुस्ताक शिवना प्रकाशन से प्रका‍शित होकर आई है । यात्रा वृतांत की शैली में लिखी गई इस उपन्याासिका में कई रोचक संस्मीरण श्री समीर ने जोड़े हैं । जबलपुर के सत्यग अशोका होटल के सभागार में आयोजित विमोचन समारोह में मुख्यी अतिथि के रूप में पहल के संपादक तथा देश के शीर्ष कथाकार श्री ज्ञानरंजन उपस्थित थे जबकि कार्यक्रम की अध्यदक्षता वरिष्ठँ साहित्याकार श्री हरिशंकर दुबे ने की ।

पुस्तक विमोचन के पश्चात बोलते हुए श्री ज्ञानरंजन ने कहा कि छोटे उपन्यासों की एक जबरदस्त दुनिया है। छोटा हो या बड़ा, सच यह है कि वर्तमान दुनिया में उपन्यासों का वैभव लगातार बढ़ रहा है। यह एक अनिवार्य और जबरदस्त विधा बन गई है और अब उपन्यास जातीय जीवन का एक गंभीर आख्यान बन चुका है। समीर लाल ने इसी उपन्यास का प्रथम स्पर्श किया है, उनकी यात्रा को देखना दिलचस्प होगा। देख लूँ तो चलूँ में अमूर्तता नहीं है, उसका कागज बोलता है, फड़फड़ाता है, उसमें चित्रकार का आमुख है, उसमें मशीन है, स्याही है, लेखक का ऐसा श्रम है जो यांत्रिक नहीं है। उन्होंने कहा कि देख लूँ तो चलूँ में नायक ऊबा हुआ है। हमारे आधुनिक कवि रघुबीर सहाय ने इसे मुहावरा दिया है, ऊबे हुए सुखी का। उपन्यास में समीर लाल ने लिखा है कि बहुत जिगरा लगता है जड़ों से जुड़ने में। समीर लाल सत्य के साथ हैं, उन्होंने प्रवास में रहते हुए भी इस सत्य की खोज की है। श्री ज्ञानरंजन ने समीर लाल के बारे में कहा कि समीर लाल का स्वागत होना चाहिए। उन्होंने मुख्य बिंदु पकड़ लिया है। उनके वक्तव्य में एक बेचैनी है जो कला की जरुरी शर्त है। समीर लाल का उपन्यास पठनीय है, उसमें गंभीर बिंदु हैं और वास्तविक बिंदु हैं। मैं उन्हें अच्छा शैलीकार मानता हूँ। यह शैली भविष्य में बड़ी रचना को जन्म देगी। उन्हें मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामना।

अपने अध्यक्षीय उदबोधन में शिक्षाविद मनीषी एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य डॉ हरि शंकर दुबे ने कहा कि ये पुस्तक इस बात का प्रमाण है कि कितनी सच्चाई के साथ और कितनी जीवंतता के साथ और कितनी आत्मीयता के साथ समीर लाल ने अपने समय को, अपने समाज को, अपनी जड़ों को, जिगरा के साथ देखने का साहस संजोया है। क्यूँकि मूलतः वो कवि भी हैं तो जब परदेश पर वो लिखते हैं दो लाईन पढ़ना चाहता हूँ- परदेस, देखता हूँ तुम्हारी हालत, / पढ़ता हूँ कागज पर, / उड़ेली हुई तुम्हारी वेदना, / जड़ से दूर जाने की।।। तो जड़ से दूर हो जाने की जो वेदना है परदेश में जाकर बराबर वो देखते हैं मार्मिकता के साथ, इसके अंदर केवल व्यंग्य भर नहीं है जो अन्तर्वेदना है और जो त्रासदी की बात उन्होंने की थी वो त्रासदी कम से कम आगे जाकर के वो प्रकट होना चाहिये- त्रासदी की बात वो बहुत बड़ी बात है। कवि-लेखक एवम ब्लागर डा० विजय तिवारी ’किसलय’ ने पुस्तरक पर बोलते हुए कहा कि कार ड्राईव करते वक्त हाईवे पर घटित घटनाओं, कल्पनाओं एवं चिन्तन श्रृंखला ही ’देख लूँ तो चलूँ’ है। यह महज यात्रा वृतांत न होकर समीर जी के अन्दर की उथल पुथल, समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का भी सबूत है। अवमूल्यित समाज के प्रति चिन्ता भाव हैं। युवा विचारक एवम सृजन धर्मी श्री पंकज स्वामी ’गुलुश’ ने पुस्ताक पर चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ब्लाग और किताबों में फ़र्क है। समीक्षक इंजिनियर ब्लागर श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव ने पुस्त क के बारे में कहा कि एक ऐसा संस्मरण जो कहीं कहीं ट्रेवेलाग है, कहीं डायरी के पृष्ठ, कहीं कविता और कहीं उसमें कहानी के तत्व है। कहीं वह एक शिक्षाप्रद लेख है, दरअसल समीर लाल की नई कृति ‘‘देख लूँ तो चलूँ‘‘ उपन्यासिका टाइप का संस्मरण है।

लेखक समीर लाल के पिता श्रीयुत पी०के०लाल ने अपने संक्षिप्त उदबोधन में कहा कि हाँ पूत के पांव पालने में नज़र आ गये थे जब बालपन में समीर ने इंजिनियर्स पर एक तंज लिखा था। लेखक श्री समीर लाल ने अपनी बात रखते हुए कहा कि किसी रचना कार के लिये उसकी कृति का विमोचन रोमांचित कर देने वाला अवसर होता है जब श्री ज्ञानरंजन जी, डा० हरिशंकर दुबे सहित विद्वजन उपस्थित हों तब वे क्या कहें और कैसे कहें और कितना कहें? ” कार्यक्रम के अंत में श्रीमति साधना लाल ने आभार प्रदर्शन कर सभी के प्रति कृतज्ञता अंत:करण से व्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन गिरीश बिल्लोीरे मुकुल ने किया।

-गिरीश बिल्लोरे ’मुकुल’

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