बुधवार, 27 मई 2009

सियैटल में प्रतिध्वनि द्वारा 'एक था गधा' का मंचन


शरद जोशी के सुप्रसिद्ध व्यंग नाटक 'एक था गधा उर्फ़ अलादाद खां' का सुरुचिपूर्ण मंचन सिएटल की सांस्कृतिक संस्था प्रतिध्वनि द्वारा वॉशिंग्टन विश्वविद्यालय स्थित, जातीय सांस्कृतिक केंद्र के सभागार में किया गया। इस नाटक में समाज एवं शासक के संबंधों का ताना बाना एक नवाब तथा एक धोबी के गधे से होता हुआ एक आम आदमी की जीवन की विडम्बना तक पहुँचता है। नाटक में यह दर्शाया गया है की किस प्रकार एक निरंकुश शासक की मनमानी का प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। ये नाटक उन सभी शासकों पर क़रारा व्यंग है जो अपनी सत्ता के मद में डूबे रहते हैं तथा आज भी सामंतवाद के युग को प्रश्रय दे रहे हैं।

सीमित साधनों में होने वाले नाटकों में मंच सज्जा एवं पात्रों की वेशभूषा पर बहुत अधिक खर्च करना संभव नहीं होता है। इसके बावजूद सभी पात्रों की सज्जा विषयानुकूल थी। चाहे कोतवाल की वर्दी हो, चाहे नवाब की अचकन या पगड़ी या धोबी का पाजामा और छोटी बाजुओं का कुर्ता, सब नाटक के अनुरूप रहे। मंच सज्जा भी सरलता से परिपूर्ण रही। मंच के संयोजन में एक महत्वपूर्ण बात ये रहती है कि कितनी स्वाभाविकता से एक दृश्य से दुसरे दृश्य में पदार्पण होता है। नाटक में इस बात का ध्यान रखा गया था कि दृश्य कि समाप्ति पर दर्शकों को इसको सूचना दे दी जाए। नाटक में प्रयोग किये गए गीत बड़े प्रभावशाली बन पड़े थे। इनका संगीत कर्णप्रिय था, शब्द अर्थों को समेटे हुए थे एवं भाव पूरी तरह मन को स्पर्श करने वाले थे। कलाकारों नें इन गीतों को भली प्रकार से गाया तथा संगीतकारों नें इस हेतु जो परिश्रम किया, वह सफल हुआ।

अभिनय कि दृष्टि से अनेक कलाकारों नें प्रभावित किया। नवाब बने मुकेश नें अपनी बुलंद आवाज़, शुद्ध उच्चारण एवं सटीक प्रस्तुतीकरण से खूब तालियाँ बटोरीं। कोतवाल बने गुरविंदर नें कहानी में हास्य के पुट को बनाये रखा तथा अपनी ज़ोरदार उपस्तिथि मंच पर दर्ज करवाई। बुद्धिजीवी बने जयंत, शाहाना और बिकास नें अपने चेहरे के भावों एवं संवादों कि अदायगी द्वारा नवाब की चाटुकारिता को जीवंत कर दिया। धोबी बने अनु गर्ग नें भी भावपूर्ण अभिनय किया। पानवाले का पात्र निभाते हुए अंकुर मानो उस चरित्र में ही प्रवेश कर गए हों। अलादाद खां (इंसान) बने कृष्णन नें अपने पात्र में सादगी को उतारा, जिससे उनके पात्र से दर्शकों की हमदर्दी जुड़ गयी। रंगकर्मी बने रोशित का अभिनय भी प्रभावी रहा। नत्थू दर्जी बने विशाल, रामकली बनी मुक्ता, दरबारी बनी श्रृंगार, अदिति, राधिका तथा नागरिक बने रानुल, पंकज, मनीषा और भूषण नें भी बढ़िया अभिनय किया। 'एक था गधा उर्फ़ अलादाद खां' के इतने जीवंत प्रस्तुतीकरण का सबसे अधिक श्रेय सिएटल क्षेत्र में हिंदी नाटक रुपी गंगा के भगीरथ तथा इस नाटक के निर्देशक अगस्त्य कोहली को जाता है। नाटक का निर्देशन सटीक एवं संतुलित रहा, कुछ पात्रों को जो स्वतंत्रता प्रदान की गयी थी उससे निर्देशक का अनुभव ही प्रर्दशित होता दिख रहा था। लम्बे लम्बे संवादों के बावाजूद नाटक कहीं बिखरता हुआ नहीं प्रतीत हुआ। दर्शक एक बार कुर्सी पर बैठे तो अंत तक मानो नाटक की दुनिया में ही खोये रहे।

कुल हिसाब ये कि नाटक बहुत बढ़िया रहा, सभी कलाकारों नें पात्रानुकूल अभिनय किया, निर्देशन अच्छा रहा तथा इस नाटक को देख कर कोई ये नहीं कह सकता था कि इसके सभी कलाकार मात्र शौकिया तौर पर अभिनय कर रहे थे। इस आशा के साथ कि आने वाले समय में सिएटलवासियों को श्रेष्ठ हिंदी नाटक नियमित रूप से देखने को मिलते रहेंगे मैं इस समीक्षात्मक लेख को विराम देता हूँ।

: अभिनव शुक्ल

2 टिप्‍पणियां:

गौतम राजऋषि ने कहा…

अच्छी रिपोर्टिंग..

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

आपकी रिपोर्ट से अक्षरश: सहमत हूं. मैंने भी यह प्रस्तुति देखी है और ठीक वही महसूस किया है जो आपने लिखा है. बढिया रिपोर्ट के लिए बधाई.