शनिवार, 25 अप्रैल 2009

शब्द संगत का विशेष अंक रचनाकार राजेन्द्र राव पर एकाग्र


'शब्द संगत' का यह अंक रचनाकार राजेन्द्र राव पर केन्द्रित है। रचनाकार राजेन्द्र राव सातवें दशक के महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। कल-कारखानों के श्रमिकों और तलघर में जी रहे जीवन पर जिन रचनाकारों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, उनमें आप महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अमरकांत, शेखर जोशी, कामतानाथ और इसराइल की तरह नहीं बल्कि उनके समानांतर राजेन्द्र राव ने फैक्ट्री में दिन-रात खट रहे मजदूर और निम्न-मध्यमवर्गीय जीवन की काली छाया को उद्घाटित किया। अभावग्रस्तता से उपजी हताशा और टूटन के बाद भी आपके पात्र परास्त नहीं होते, जीवन से निराश नहीं होते, वरन् उससे रू-ब-रू होते हुए अपने संघर्ष का शोकगीत गाते हैं। राजेन्द्र राव ने बहुत ही खूबसूरती से इस जीवन को अभिव्यक्ति दी है। कह सकते हैं कि नेहरू युग के क्रूर सच को यदि देखना है तो राजेन्द्र राव की कहानिया इसका सर्वश्रेष्ठ नमूना हैं। सिर्फ कहानियों के मार्फ़त ही नहीं, वरन् रेखाचित्रों, कॉलम लेखन, स्तंभों में भी आपने अपनी रचनात्मकता को नए आयाम दिए और जीवन-द्भष्मा को बरक़रार रखा। साप्ताहिक हिन्दुस्तान में 'हाटे-बाज़ारे` शीर्षक से प्रकाशित धारावाहिक वेश्या-जीवन की त्रासदी के बहाने आपने समकालीन व्यवस्था को बेनकाब किया जिसमें इंसान नारकीय जीवन जीने को बाध्य है। अपनी रचनात्मकता को
जीवित रखते हुए राजेन्द्र राव आज भी रचनारत और समादृत हैं। 'शब्द संगत` का यह अंक उनके रचनात्मक श्रम के सौन्दर्य को समर्पित है। इस अंक की पीडीएफ फाइल को यहाँ क्लिक कर के अपने कंप्यूटर पर सहेजा जा सकता है।
--हरि भटनागर

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